बच्चों में मोबाइल की लत (Mobile Addiction in kids)

Phone addiction in kids
Phone addiction in kids

बच्चों में मोबाइल फोन (Mobile Phone) की लत क्या है?

आज से करीब दस साल पहले तक माता पिता और अभिभावकों को चिंता रहती थी कि कहीं उनका किशोर बेटा/ बेटी शराब और मादक पदार्थों के नशे के जाल में ना फंस जाएं। 

लेकिन आज की तारीख में माता पिता की यह चिंता मोबाइल फोन (Mobile Phone) को लेकर हो गई है। और चिंता हो भी क्यों ना क्योंकि मोबाइल फोन की लत (Addiction)को अफीम या किसी भी अन्य नशीले पदार्थ की तुलना में अधिक घातक माना जा रहा है। 

 मोबाइल फोन (Mobile Phone) की लत बच्चों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शैक्षणिक विकास पर बहुत बुरा असर डाल रही है। 

आज विकसित और विकासशील देशों में मोबाइल फोन (Mobile Phone)बहुत आसानी से उपलब्ध है और जीवन के हर क्षेत्र में हमें इसकी जरूरत पड़ती है, फिर चाहे आफिस हो, स्कूल हो या घर। रोजमर्रा के जीवन को आसान बनाने वाले ढेरों ऐप मोबाइल फोन पर उपलब्ध हैं। 

आसानी से इसकी उपलब्धता और सस्ते डाटा ने किशोरवय बच्चों के बीच मोबाइल फोन (Mobile Phone)का उपयोग जरूरत से ज्यादा बढ़ा दिया है। औसतन किशोर उम्र के बच्चे करीब सात से आठ घंटे मोबाइल फोन पर बिताते हैं। इसके मुकाबले वयस्क लोग रोजाना चार घंटे मोबाइल फोन (Mobile Phone) इस्तेमाल करते हैं। 

लेकिन हम किस आधार पर यह अनुमान लगाते हैं कि किशोरों के लिए मोबाइल फोन एक एडिक्शन ( Addiction) या लत बन गया है? इसका अंदाजा हम इस प्रकार से लगाते हैं कि जब बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल केवल बात करने या एक दूसरे को मैसेज भेजने के अलावा अन्य कामों के लिए भी करने लगते हैं तो इसका मतलब है कि उन्हें मोबाइल फोन की लत लग चुकी है।

अगर किशोर वास्तविक दुनिया से बचने के लिए मोबाइल फोन पर गेम, ऐप्स या फिल्में देखने हैं, और मोबाइल फोन बंद करने की सलाह पर वे उत्तेजित हो जाते हैं, उनका मूड खराब हो जाता है, वे बेचैन (Anxious)हो जाते हैं, या आक्रामक (Aggressive)व्यवहार करते हैं तो समझ लें कि किशोर एक ऐसे एडिक्शन (Addiction) का शिकार हो चुका है, जिसने उसके दिमाग को अपने नियंत्रण में ले लिया है। 

इससे भी बढ़कर मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया (Social Media)का इस्तेमाल किशोरवय (Teens) बच्चों के लिए सबसे अधिक नुकसानदायक साबित हो रहा है। 

ये इंसान की मूल प्रवृति है कि वह दूसरों की सराहना (Admiration), अनुमोदन (Approval), उनकी राय (Comments) जानना चाहता है और ऐसा ही वह स्वयं दूसरों के बारे में भी करता है। यहां वे सोशल मीडिया (Social Media) पर एक दूसरे की आलोचना का भी शिकार होते हैं।

अधिकतर देखा गया है कि किशोर मोबाइल फोन का इस्तेमाल केवल बात करने के लिए नहीं करते बल्कि वे अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया पर यह देखने में बिताते हैं कि दूसरे साथियों, उनके प्रतिद्वंद्वियों, उनकी गर्लफ्रेंड, उनके टीचर्स आदि की दुनिया में क्या चल रहा है। कौन उनके पोस्ट (Post), फोटो (Photos), कमेंट्स (comments) को लाइक कर रहा है और कौन किस को ट्रोल (Troll)कर रहा है।

किशोर आज फिल्म, गेम, स्टार्स, बिजनेस, कैरियर, फिटनेस, लुक्स आदि से जुड़े ढेरों ऐप यूज करते हैं। और स्मार्टफोन पर लगातार एक्टिव रहकर वे हर मामले से अपडेट रहना चाहते हैं। 

कमेंट्स (comments) , लाइक (Likes), लव इमोजी (Love Emoji) … इन सब चीजों से किशोरों के दिमाग में डोपामाइन (Dopamine) रिलीज होता है। डोपामाइन (Dopamine) उन्हें बूस्ट(Boost) देता है और यही कारण है कि बूस्ट के लिए उन्हें लगातार डोपाइन  (Dopamine) चाहिए होता है और जब उन्हें स्मार्टफोन (Smart Phone) से यह बिना कुछ किए मिल रहा है, तो वे घंटों इस पर सक्रिय रहते हैं।

बच्चों में मोबाइल फोन (Mobile Phone) की लत से दुनिया क्यों बेचैन है?

दुनिया के विभिन्न देशों में बच्चों और किशोरों के मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर पूर्ण रूप से रोक लगाने के लिए कानून बनाए जा रहे हैं।

यूरोप के सबसे खुशहाल और समृद्ध देशों में शीर्ष स्थान रखने वाला डेनमार्क उन देशों की सूची में शामिल हो गया है जहां बच्चों के स्वास्थय पर डिजीटल उपकरणों के बुरे प्रभाव के कारण उनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

फ्रांस ने साल 2018 में ही स्कूलों में मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था जबकि नार्वे ने कानून बनाया है कि 15 साल से पहले बच्चे सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल नहीं करेंगे।

आस्ट्रेलिया में भी न्यू साउथ वेल्स और साउथ आस्ट्रेलिया को छोड़कर नौ राज्यों में बच्चों द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर रोक लगायी हुई है। स्पेन में भी 17 स्वायत्त क्षेत्रों में से तीन को छोड़कर – बास्क काउंटी, ला रियोजा आौर नेवारे – बाकी देश में ऐसा ही प्रतिबंध लगाया हुआ है।

अगर हम अमेरिका की बात करें तो 50 में से 20 राज्यों ने अपने स्कूलों में इसी प्रकार के प्रतिबंध लगाए हैं। यहां कैलिफोर्निया में ‘फोन फ्री स्कूल एक्ट’ लागू है तो फ्लोरिडा, इंडियाना ओर ओहायो में स्कूलों में पोर्टेबल वायरलेस डिवाइस जैसे कि मोबाइल फोन, टेबलेट, आईपॉड जैसे इलैक्ट्रोनिक गैजेट्स के इस्तेमाल पर रोक है।

मोबाइल फ़ोन की लत के शिकार 

मध्य प्रदेश के बालाघाट के वारासिवनी में देर रात तक मोबाइल फोन पर लगे रहने से मना किया तो किशोर ने मां बाप पर भारी वस्तु से हमला किया जिसमें मां की मौत हो गई।

ब्राजील के साओ पाउलो में एक किशोर ने फोन छीन लिए जाने के कारण अपने माता पिता और 16 वर्षीय बहन की गोली मार कर हत्या कर दी। – 23 मई 2024

त्रिपुरा में एक 15 वर्षीय स्कूली लड़के ने अपनी मां, छोटी बहन, दादा और एक पड़ोसी की कथित तौर पर हत्या कर दी थी क्योंकि उसकी मां ने उसे स्मार्टफोन इस्तेमाल करने से मना कर दिया था। – 7 नवंबर 2022

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 16 साल के लड़के पर अपनी ही मां की हत्या का आरोप लगा है। बेटे को मां मोबाइल गेम खेलने से मना करती थी, जिसके बाद बेटे ने अपने पिता की रिवॉल्वर से मां की हत्या कर दी। – 8 जून 2022

ये खबरें केवल भारत से नहीं बल्कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों से जुड़ी हैं । यही कारण है कि दुनिया के ये सबसे धनी और आधुनिक तकनीक के मामले में अग्रणी देश बच्चों, किशोरों और छात्रों के हाथों में मोबाइल फोन, टेबलेट आदि को लेकर इतना खौफ खाये हुए हैं।

इनके मुकाबले अगर भारतीय परिदृश्य पर नजर डाली जाए तो आज औसतन साठ फीसदी बच्चों के हाथों में मोबाइल फोन है। माता पिता भी दोस्तों रिश्तेदारों के बीच बड़े गर्व से बताते हैं कि हमारी ढाई साल की गुड़िया या गुड्डू मोबाइल फोन पर रील्स चलाने में बड़ा स्मार्ट है। वो तो खुद ही फोन ऑन कर लेता है, ऐप खोल लेता है, रील्स देखकर डांस करता है!

लेकिन अधिकतर माता पिता को इस कड़वी सच्चाई की जानकारी नहीं है कि मोबाइल फोन और सोशल मीडिया उनके बच्चों के मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास को कितनी बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।

चूंकि, मोबाइल फोन आज सब जगह और हर किसी को आसानी से उपलब्ध है तो बच्चे भी बहुत छोटी उम्र में इसके संपर्क में आ रहे हैं।

क्या कहते हैं आंकड़ें

कॉमन सेंस मीडिया कहता है कि अमेरिका में 53 फीसदी बच्चों को 11 साल की उम्र तक मोबाइल फोन मिल जाता है। भारत में ये आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। एक नए सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि 12 साल तक की उम्र के कम से कम 42 फीसद बच्चे हर दिन औसतन दो से चार घंटे अपने स्मार्टफोन या टैबलेट से चिपके रहते हैं जबकि इससे अधिक आयु के बच्चे हर दिन 47 फीसद वक्त मोबाइल फोन की स्क्रीन पर बिताते हैं।

बच्चों के लिए मोबाइल फोन इतना घातक क्यों

मोबाइल फोन बच्चों के लिए क्यों इतना घातक है कि पूरी दुनिया में बच्चों को इससे दूर रखने की बात कही जा रही है। मनोचिकित्सक कह रहे हैं कि कम से कम 17 साल की उम्र तक बच्चों को मोबाइल फोन नहीं दिया जाना चाहिए। ऐसे में ढाई .तीन साल के बच्चे /बच्चियों को मोबाइल फोन पकड़ा देना किस कदर नुकसानदायक हो सकता है?

डाक्टरों का कहना है कि बहुत कम उम्र में मोबाइल फोन पर रील्स या  यूट्यूब पर वीडियो आदि देखने से बच्चे के मस्तिष्क यानि के दिमाग के विकास पर असर पड़ता है। पैदा होने से लेकर शुरूआती तीन साल तक बच्चे का दिमाग बाहरी वातावरण के प्रभावों और सीखने की प्रक्रिया के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होता है।

इन शुरूआती तीन सालों में दिमाग में बहुत तेजी से और विभिन्न प्रकार के बदलाव होते हैं। इन वर्षों के दौरान, मस्तिष्क का तेजी से विकास होता है, तथा अनेक तंत्रिका कनेक्शन बनते हैं जो व्यक्ति के चरित्र, दृष्टिकोण और भविष्य की सीखने की क्षमता को आकार देते हैं। इसलिए बच्चा जहां अपने माता पिता, दोस्तों, पशु पक्षियों और आसपास के वातावरण से जो संज्ञानात्मक और रचनात्मक व्यवहार सीखता, वह उससे वंचित रह जाता है। इतना ही नहीं वास्तविक दुनिया के अनुभवों की तुलना में वह डिजिटल तरीके से संवाद को अधिक प्राथमिकता देना शुरू कर देता है।

मोबाइल की लत के दुखद परिणाम (Harmful effects of Mobile Addiction)

बच्चों को मोबाइल फोन की लत के दुखद परिणाम क्या हो सकते हैं ?:

मानसिक और शारीरिक थकान के अलावा बच्चे का विकास बाधित होता है।

बच्चों की बोलने की क्षमता और संज्ञानात्मक कौशल 

1. बोलने की क्षमता और संज्ञानात्मक कौशल (Speaking Ability and Cognitive Skill): जर्नल पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जो बच्चे बहुत कम उम्र में स्क्रीन पर बहुत समय बिताते हैं, उनमें बोलने की भाषा और संज्ञानात्मक कौशल खराब होने की आशंका अधिक होती है।

इस संबंध में किए गए अनुसंधानों से यह भी पता चलता है कि मोबाइल पर किसी वीडियो गेम या रील्स को लगातार कई घंटों तक देखने से कुछ बच्चों के दिमाग में अनावश्यक उत्तेजना पैदा होती है। इसका परिणाम यह होता है कि बच्चों में एकाग्रता का अभाव पैदा होता है, उन्हें अपना पाठ या सिखाया हुआ कोई भी कौशल याद रखने में परेशानी होती है और स्कूल में भी वो पिछड़ते चले जाते हैं।

2. बातचीत या संवाद: ऐसे बच्चे जो ज्यादातर समय दूसरे बच्चों के साथ मोबाइल फोन या वाट्सअप चैट के माध्यम से बात करते हैं, उन्हें समाजिक स्तर पर अपने से छोटों, हम उम्र के बच्चों, या बड़े नाते रिश्तेदारों या अजनबी लोगों से बात करने में परेशानी होने की संभावना रहती है।

भारतीय संदर्भों में अगर बात की जाए तो बच्चे अपने परिवेश से संस्कार और संस्कृति भी सीखते हैं लेकिन मोबाइल फोन उन्हें अपने परिवेश से, समाज से काट रहा है।

इसका परिणाम यह हो रहा है कि बच्चे सामाजिक विलगाव का शिकार हो रहे हैं, उनमें समानुभूति की भावना कम हो रही है। इतना ही नहीं उन्हें वास्तविक दुनियादारी में बनने वाले संबंधों को भी निभाने में दिक्कतें हो रही हैं।

वरिष्ठ बाल एवं किशोरावस्था रोग विशेषज्ञ डा. के के पांडे का कहना है कि आज समाज में किशोरवय बच्चों के बीच बढ़ते अपराध और वैवाहिक संबंधों की परिणति अपराध के रूप में होने के पीछे भी डिजिटल वर्ल्ड का हाथ होने की काफी संभावना है।

3. शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Fitness): 21वीं सदी के लगभग सभी माता पिता अपने बीते बचपन को याद करते हैं। इस लेख को पढ़ने वाले अभिभावक इस बात से सौ फीसदी सहमत होंगे कि उनके मुकाबले उनके बच्चों का बचपन बहुत उबाऊ है। जहां आज से बीस तीस साल पहले गिल्ली डंडा, कंचे, लंगडी टांग, पकड़म पकड़ाई, छुपम छुपाई, आईस-पाईस जैसे ना जाने कितने ही खेल खेले जाते थे।

ये वो दौर था जब बच्चे स्कूल से आते ही घर में बस्ता पटककर संगी साथियों के साथ खेलने निकल जाते थे और दिन ढले लौटते थे।

लेकिन आज अधिकतर बच्चों के पास केवल वीडियो गेम, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर और टेबलेट के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। अनौपचारिक खेलों की जगह औपचारिक खेलों ने ले ली है जहां बच्चे स्टेडियम या स्पोर्ट्स कोचिंग सेंटरों में जाकर विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। लेकिन करीब साठ फीसदी बच्चे ऐसे खेलों में समय बिताते हैं जिनसे शारीरिक दौड़ भाग ना के बराबर है।

इसका नतीजा ये हो रहा है कि बच्चों में मोटापा बढ़ रहा है। और यही मोटापा बच्चों के आत्मविश्वास में गिरावट के साथ ही कई तरह की बीमारियों का कारण बनता है।

4. मानसिक सेहत : सेल फोन ने बच्चों को अपने जाल में जकड़ रखा है और इसका सीधा असर उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। किशोर उम्र के ऐसे बच्चे जो रोजाना सात घंटे से अधिक समय स्क्रीन पर बिता रहे हैं उनमें बेचैनी या अवसाद की घटनाएं ज्यादा बढ़ रही हैं।

इलैक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल छोटे और किशोरवय बच्चों के लिए दोहरा खतरा है। रील्स, या वीडियोज का जो सबसे बड़ा नुकसान है वो ये है कि कोई भी व्यक्ति या बच्चा उसमें अपनी पसंद के अनुसार कुछ खास विषयों से संबंधित वीडियो ही देखता है।

इन सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म का एक एल्गोरिदम है, चाहे फेसबुक हो, या यूट्यूब या इंस्टाग्राम- ये उपयोगकर्ता के ऊपर कुछ ही विषयों संबंधी सामग्री की बमबारी कर देते हैं। इसका नुकसान यह होता है कि देखने वाले का दिमाग धीरे धीरे एक ही विषय का लती हो जाता है।

इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मान लीजिए एक बच्चा निर्धारित सीमा से ज्यादा समय तक मोबाइल फोन के रील्स में केवल कार्टून ही देखता है या मारधाड़ वाली सामग्री देखता है तो धीरे धीरे उसका दिमाग उसी प्रकार से सोचना और समझना शुरू कर देता है। ऐसे बच्चे वर्चुअल और वास्तविक दुनिया में फर्क करना नहीं सीख पाते।

डाक्टरों का कहना है कि मौजूदा समय में स्कूलों में होने वाली हिंसक घटनाओं में सोशल मीडिया का बहुत बड़ा प्रभाव है।

आपने देखा होगा कि उम्र के सफर में 21 साल का पड़ाव बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस उम्र तक आप कॉलेज स्तर की औपचारिक शिक्षा पूरी कर लेते हैं, कानून के अनुसार आप विवाह योग्य हो जाते हैं, आप नौकरी शुरू कर सकते हैं और यही वह उम्र होती है जब अधिकांश लोगों में अक्ल दाड़ निकलती है।

उम्र के 21वें पड़ाव का महत्व 

इस 21 साल का हमारे शारीरिक और मानसिक विकास में भी खास महत्व है। आइए समझते हैं कैसे।

हमारे दिमाग में माथे के ठीक पीछे फ्रंटल लोब्स (Frontal Lobes)होते हैं। ये हमारे फैसला लेने, तर्क करने, योजना बनाने, संगठित होने या परिणामों के बारे में सोचने की क्षमता पैदा करते हैं। ये हमारी सोचने समझने की शक्ति को भी नियंत्रित करते हैं।

लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि 21 साल का होने तक हमारे ये फ्रंटल लोब्स पूरी तरह विकसित नहीं होते हैं

वेइल कॉर्नेल मेडिसिन ब्रेन एंड स्पाइन सेंटर की हेइडी एलिसन बेंडर जो कि न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट और न्यूरोसाइकोलॉजिकल सर्विसेज की निदेशक हैं, उनका कहना है,‘‘ इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों के फ्रंटल लोब बनने की ज़रूरत है क्योंकि वे ही सोशल मीडिया की दुनिया में आगे बढ़ते बच्चों को सही निर्णय लेने में मदद कर सकते हैं।

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